गुजरात चुनावों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होना लगभग तय

लोकतंत्र में हार और जीत तो लगी ही रहती है और जनता अपने विवेक और समझ का इस्तेमाल करते हुए किसी एक पार्टी को सत्ता के सिंहासन तक पहुँचाने का काम करती है. उस तरह से देखा जाए तो गुजरात चुनावों में कांग्रेस को मिलने वाली पराजय पर किसी को भी  हैरानी नहीं होनी चाहिए. कांग्रेस पार्टी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह पार्टी और इसके नेता अभी तक यह नहीं समझ सके हैं कि जनता ने जब इस पार्टी को २०१४ में सत्ता से बाहर किया था तो उसे पिछले ६० सालों के कुशासन , भ्रष्टाचार और देशद्रोह का दंड दिया था. २०१४ का सत्ता परिवर्तन कोई मामूली सत्ता परिवर्तन नहीं था. जो लोग पिछले कई दशकों से देशद्रोहियों के तलवे चाट चाट कर देश के बहुसंख्यकों का लगातार अपमान कर रहे थे और  जो लोग अपने कुशासन और भ्र्ष्टाचार से लगातार जनता और देश को लूटने का काम कर रहे थे, जनता ने २०१४ में उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था.
 
२०१४ में मिली हार के बाद कांग्रेस पार्टी को ज्यादातर राज्यों में भी उसी तरह की शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा लेकिन इस पार्टी ने न तो अपनी हार से कोई सबक लेने की कोशिश की और न ही कभी अपनी  भ्रष्टाचार,कुशासन और देशद्रोही मानसिकता के लिए देश की जनता से माफी माँगी. चोरी और सीनाजोरी की तर्ज़ पर इस पार्टी के नेता लगातार अपनी इन नीतियों का समर्थन करते रहे और मोदी, भाजपा और संघ की नीतियों का पुरजोर विरोध करते रहे. अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए यह पार्टी इस हद तक नीचे गिर गयी कि इसने मुस्लिम  आतंकवादियों को खुश करने के लिए कुछ देशभक्त हिन्दुओं को फ़र्ज़ी मामलों में गिरफ्तार करके उन्हें "हिन्दू आतंकवादी" के नाम से पुकारना शुरू कर दिया. इन लोगों के खिलाफ दायर फ़र्ज़ी मामले अदालतों में नहीं टिक सके और उन्हें अदालतों को बाइज़्ज़त बरी करना पड़ा. लेकिन इस पार्टी ने बहुसंख्यक  समुदाय को जलील करने की अपनी नापाक कोशिश लगातार जारी रखी. जहां एक ओर कांग्रेसी पी एम् मनमोहन सिंह ने देश के सभी संसाधनों पर अल्पसंख्यकों के पहला हक़ होने की बात कही, वहीं कांग्रेस पार्टी एक ऐसे  कानून को लागू करना चाहती थी जिसके तहत सांप्रदायिक हिंसा होने पर दोष चाहे किसी भी समुदाय का हो, उसके लिए बहुसंख्यक समुदाय को ही दोषी माने जाने की व्यवस्था थी. कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री तो पाकिस्तान में जाकर यह भी गिड़गिड़ाए कि मोदी को हारने में  हमारी पार्टी  की मदद करो. अगर यह देशद्रोह नहीं है तो फिर देशद्रोह किसे कहते हैं ?
 
पिछले ३ सालों में पी एम् मोदी ने जिस तरह से देश के सर्वांगीण विकास के लिए ठोस कदम उठाये हैं और जिस तरह से नोटबंदी और जी एस टी के जरिये काले धन पर लगाम लगाई है, उससे इस पार्टी के नेता पूरी तरह बौखलाए हुए हैं और उस बौखलाहट में न सिर्फ इस पार्टी के अपने नेता बल्कि इसकी सहयोगी पार्टियों के नेता भी अनाप शनाप बयानबाज़ी में जुटे हुए है. पिछले ६० सालों में जिस बड़े पैमाने पर गोलमाल और भ्रष्टाचार हुआ था , उसके चलते  सभी नेताओं ने मोटा माल बनाया था. नोटबंदी का असर यह हुआ कि पिछले ६० सालों में जोड़ा हुआ सारा "मोटा माल" या तो बेकार हो गया या फिर बैंकों में जमा करवाना पड गया. अब जब बैंकों में यह "मोटा माल" जमा हो गया तो उसका मतलब यह नहीं है कि उसका रंग "काले" से "सफ़ेद" हो गया. आयकर विभाग ने अब जब इस जमा किये गए "काले धन" का हिसाब माँगना शुरू किया तो इन सभी विपक्षी नेताओं की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी. जब नोटबंदी के समय यह विपक्षी नेता अपना मूर्खतापूर्ण विरोध कर रहे थे, तभी मैंने यह लिखा था कि विपक्षी नेताओं का इस तरह से छाती पीट पीट कर विधवा विलाप करना ही इस बात का सुबूत है कि इन लोगों ने इस देश को पिछले ६० सैलून में किस तरह से लूट लूट कर काला धन इकठ्ठा किया है. एक तरफ जहां नोटबंदी ने पिछले ६० सालों में कमाए गए काले धन का सफाया कर दिया, दूसरी तरफ जी एस टी ने यह भी सुनिश्चित कर दिया कि आज के बाद काले धन की उपज कम से कम हो या फिर न के बराबर हो. बेनामी संपत्ति के कानून को लागू करके मोदी जी ने इन लोगों के नीचे से रही सही जमीन भी खिसका दी है. नतीजा यह है कि न सिर्फ कांग्रेस पार्टी और उसके नेता बल्कि इसकी सभी सहयोगी पार्टियां और उसके नेता भी पी एम् मोदी का इस तरह से विरोध कर रहे हैं मानों मोदी ने इन लोगों के काले कारनामों पर लगाम लगाकर कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो.
 
कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने क्योंकि पिछले ६० सालों में सत्ता का सुख मिल बाँट कर भोगा है और अपने लिए चाटुकारों की एक बहुत बड़ी फौज भी तैयार की है जो समय समय पर इन तथाकथित विपक्षी राजनीतिक दलों और उनके तथाकथित नेताओं की हाँ में हाँ मिलाकर मोदी, भाजपा कर संघ को बदनाम करने का षड्यंत्र रचती रहती है. यह लोग कभी कलाकार और लेखक बनकर अपने अपने "अवार्ड" वापस करना शुरू कर देते हैं, कभी अर्थशास्त्री बनकर भारत की अर्थव्यवस्था पर गैर जरूरी टीका टिप्पणी करना शुरू कर देते हैं. उत्तर प्रदेश में एक "अख़लाक़" की मौत पर कई महीनों तक मातम मनाने वाले यह स्व-घोषित "सेक्युलर" नेता, केरल और पश्चिम बंगाल की हिंसा पर हमेशा ही चुप्पी साधे रहते हैं. इन लोगों को यह लगता है कि यह सारी बातें जो इस ब्लॉग में लिखी गयी हैं, वे इस देश की आम जनता तक नहीं पहुंचेगी और जनता को वही समाचार मालूम पड़ेंगे जो इनके नेता या इनके पाले हुए मीडिया के लोग जनता तक पहुंचाएंगे. लेकिन सोशल मीडिया  ने इन लोगों के मंसूबों पर अब पानी फेर दिया है. गुजरात की जनता हो या देश के किसी अन्य राज्य की जनता, कांग्रेस और इसकी सहयोगी पार्टियों के कारनामों से सभी पूरी तरह वाकिफ है और हर आने वाले चुनाव में जनता इस पार्टी को दण्डित करने के लिए पहले से भी  अधिक आतुर दिखाई देती है. गुजरात में हालांकि कांग्रेस पार्टी तरह तरह की "नौटंकियां " करके जनता को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रही है लेकिन गुजरात जैसे राज्य की जनता "कांग्रेस की इस प्रायोजित नौटंकी" का शिकार होगी, इस पर कांग्रेस पार्टी को शायद खुद भी यकीन नहीं होगा.

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