Thursday, April 27, 2017

देश को मोदी-योगी जैसे नेता चाहियें,केजरीवाल जैसे नहीं

केजरीवाल के चाल, चरित्र और चेहरे को बेनकाब करने वाले सबसे ज्यादा लेख शायद मैंने ही लिखे हैं. १८ मार्च २०१४ को भी केजरीवाल को बेनकाब करता हुआ मेरा लेख प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था-” केजरीवाल: महानायक से खलनायक बनने तक का सफर”. मीडिया ने तो दिल्ली MCD चुनावों के बाद उन्हें खलनायक घोषित किया है लेकिन मेरे हिसाब से तो वह इस “सम्मान” के अधिकारी आज से लगभग तीन साल पहले ही हो चुके थे, उसी के चलते २०१४ के लोकसभा चुनावों में भी उनका सूपड़ा साफ़ हो गया था लेकिन, मोदी की २०१४ की जीत से बौखलाए अल्पसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण के चलते केजरीवाल ६७ सीटों के साथ दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए. केजरीवाल किसी भी कारण से मुख्यमंत्री बने हों, लेकिन उनके पास अपने आप को साबित करने का एक बेहतरीन मौका था -जिन मुद्दों को वह अन्ना आंदोलन के वक्त और उससे पहले जोर शोर से उठाने की नौटंकी कर रहे थे, उन्हें अमली जामा पहनाने का भरपूर मौका उनके पास था. जनता ने दिल खोलकर बहुमत दिया था. मेरे जैसे लोग तो खैर हैरान थे, क्योंकि मुझे यह मालूम था कि ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है- काम करना केजरीवाल की फितरत में नहीं है. अपनी पढाई पूरी करने के बाद केजरीवाल को पहली नौकरी टाटा ग्रुप में मिली थी, काम करने की नीयत नहीं थी, लिहाज़ा वह नौकरी छोड़कर भारतीय राजस्व सेवा में आये, लेकिन यहां भी काम करने की वजाये पहले तो लम्बी छुट्टी  लेकर “स्टडी लीव” पर चले गए और जब वापस आये तो यह नौकरी भी छोड़ दी और लगे NGO चलाने. NGO चलाने का अपना ही मज़ा है. कुछ किये बिना NGO में विदेशों से भेजे हुए पैसों पर मौज करो. अब सरकार ने ऐसे NGO पर नकेल कसनी शुरू भी की है तो केजरीवाल के बिरादरी के और लोग जो NGO चला रहे हैं, उन्हें भारी तकलीफ हो रही है.
केजरीवाल की ६७ विधायकों वाली प्रचंड बहुमत की सरकार बने लगभग दो साल से ऊपर का समय हो चुका है और इन दो सालों में उनका फोकस काम करने पर कम था और इस बात पर ज्यादा था कि किस तरह से काम न कर पाने के लिए “मोदी और भाजपा” को जिम्मेदार ठहराया जाए. अपनी इस बहानेबाज़ी को उन्होंने जनता के खर्चे पर प्रचारित भी किया. जगह जगह बड़े बड़े पोस्टर और होर्डिंग लगवाए, जिन पर लिखा था- “हम काम करते रहे, वह हमें परेशान करते रहे.” काम क्या हो रहा था, वह सिर्फ इस पार्टी के कार्यकर्ताओं को मालूम था, जिसका खुलासा शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट में भी हुआ है और जिनके कारनामों की मैं अपने अलग अलग ब्लॉग में चर्चा भी कर चुका हूँ.
मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ यह लिखना चाहता हूँ कि केजरीवाल ने पिछले २ सालों में “काम” कम और “कारनामे” ज्यादा अंजाम दिए हैं, इसी वजह से लोग केजरीवाल और उनकी पार्टी से बुरी तरह खिसियाये हुए थे और वह सिर्फ उस मौके का इंतज़ार कर रहे थे कि कब इन्हे दिल्ली से बाहर का रास्ता दिखाया जाए. चुनावों के जरिये दिल्ली की जनता ने अपना निर्णय सुना दिया है. भाजपा पिछले १० सालों से MCD में थी और अगर केजरीवाल ने पिछले दो सालों में ठीक से काम किया होता तो उन्हें यह MCD चुनाव जीतने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ती लेकिन जनता यह अच्छी तरह समझ चुकी है कि काम करना केजरीवाल जी की फितरत में नहीं है, यह सिर्फ काम से बचना चाहते है, उसके लिए इन्हे किसी भी व्यक्ति पर कैसे भी आरोप क्यों न लगाने पड़ें. दिल्ली और देश की जनता इस तरह की नौटंकियों से अब ऊब चुकी है और हालिया चुनाव नतीजों में जनता की इस सन्देश को बहुत साफ़ साफ़ देखा जा सकता है कि देश को अब मोदी-योगी जैसे काम करने वाले नेताओं की जरूरत है, केजरीवाल जैसे बहानेबाज़ों की नहीं.

Thursday, April 20, 2017

56 इंची जिनका सीना, यह बात उन्हें बतलानी है.............

जो सैनिक को थप्पड़ मारे, वे सब के सब जेहादी हैं.

जो हैं कश्मीर की सत्ता में, वे ही असली अपराधी हैं.

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मुफ्ती,अब्दुल्ला और हुर्रियत तो छप्पन भोग लगाते हैं

सीमा की जो रक्षा करते, वे मुफ्त में थप्पड़ खाते हैं.

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सत्ता की खातिर कर डाला है राष्ट्रवाद से गठबंधन

तुम जिसको कहते गठबंधन,जनता कहती है ठगबंधन

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५६ इंची जिनका सीना, यह बात उन्हें बतलानी है

पिट गया अगर कोई सैनिक तो गठबंधन बेमानी है.

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पहले गठबंधन ख़त्म करो, फिर दुष्टों का संहार करो

अब नहीं पिटे कोई सैनिक, ऐसा घातक प्रहार करो

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कश्मीर नहीं है अब्दुल्ला-हुर्रियत जैसे शैतानों का

कश्मीर पे हक़ है भारत का-भारत के वीर जवानो का

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© सर्वाधिकार सुरक्षित : राजीव गुप्ता

Monday, April 17, 2017

कश्मीर समस्या पर सरकार को अब्दुल्ला की खरी-खरी

सारे देश में कश्मीर में बढ़ती देशद्रोह की घटनाओं को लेकर जब सभी टी वी चैनल अपनी अपनी टी आर पी बढ़ाने में लगे हुए थे, उस वक्त “खबरदार” न्यूज़ चैनल के  सीनियर एडिटर ने अपने एक सीनियर रिपोर्टर और कैमरामैन को बुलाया और उन्हें यह हिदायत दे डाली: “देखों हमें भी धंधे में बने रहने की लिए कुछ न कुछ करना होगा और बाकी सभी लोगों की तरह अपनी टी आर पी बढ़ाने की लिए हाथ पाँव इधर उधर मारने होंगे. तुम लोग ऐसा करो कि तुरंत कश्मीर के लिए रवाना हो जाओ. वहां थोक में देशभक्त नेता उपलब्ध हैं. उन नेताओं से एक धमाकेदार इंटरव्यू लेना है जिसे हम लोग कम से एक हफ्ते तक अपने चैनल पर दिखा दिखा कर अपने दर्शकों को भी देशभक्ति के  लिए प्रेरित कर सकें..”
सीनियर रिपोर्टर और कैमरामैन दोनों ही गर्मियों में कश्मीर यात्रा के इस अचानक मिले अवसर पर मन ही मन बहुत खुश हुए लेकिन अपनी खुशी को दबाते-छुपाते हुए उन्होंने सीनियर एडिटर से यह सवाल किया, “कहीं आपका इशारा मारूक अब्दुल्ला और उसके बेटे कुमर अब्दुल्ला की तरफ तो नहीं है?”
सीनियर एडिटर: “हाँ मेरा इशारा इन्ही दोनों की तरफ है, क्योंकि यह दोनों ही ऐसे नेता हैं जो न सिर्फ अव्वल दर्ज़े के देशभक्त हैं, वरन यह लोग हमेशा अपने देशभक्ति के कारनामों का बखान करने में भी सबसे आगे रहते हैं.”
सीनियर रिपोर्टर ने एडिटर साहब की हिदायत की मुताबिक फोन लगाकर मारूक अब्दुल्ला से बात की और उनसे इंटरव्यू की लिए वक्त माँगा.
अब्दुल्ला को तो मानो मुंह माँगी मुराद मिल गयी. कहने लगे, “अरे पत्रकार महोदय, हम बाप- बेटे तो कब से इस इंतज़ार में हैं कि दिल्ली से कोई बड़े टी वी चैनल का रिपोर्टर आये और हम लोगों की भी सुध ले, हमारे ऊपर पाकिस्तान में बैठे हमारे आकाओं का बड़ा दबाब है. आप जल्द से जल्द हवाई जहाज़ का टिकट कटाइए और सीधे हमारे पास पहुंचिए. हम लोगों ने आपको देने की लिए बहुत सारा मसाला तैयार कर रखा है.”
सीनियर रिपोर्टर और कैमरामैन दोनों का ही अब्दुल्ला बाप बेटों ने कश्मीर पहुँचने पर जोरदार स्वागत किया और बोले, “देखिये इससे पहले कि आप कोई सवाल करें, हम दोनों ही यह बात साफ़ साफ़ बता देना चाहते हैं कि अखबारों में छप रही  और कुछेक टी वी चैनल पर चल रही ख़बरों में जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसका हम पूरी तरह खंडन करते हैं.”
सीनियर रिपोर्टर ने हैरान होते हुए कहा, “आपके देशभक्ति के कारनामें सभी अखबारों और टी वी चैनलों की सुर्खियां बने हुए हैं.”
अब्दुल्ला: रिपोर्टर महोदय, हमें इसी बात पर सख्त ऐतराज़ है. देशभक्त होने का संगीन आरोप हम लोगों पर हरगिज़ नहीं लगाया जा सकता है. ऐसा कोई प्रमाण किसी के भी पास उपलब्ध नहीं है, जिससे यह साबित होता हो कि हम लोग गलती से भी “देशभक्ति” की गतिविधियों में लिप्त हों. हम लोगों ने पिछले लगभग ७० सालों से कश्मीर समस्या को जस का तस बनाये रखने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है और जब तक हम दोनों जिन्दा हैं, हम इस बात का वचन देते हैं कि यह समस्या इसी तरह कायम रहेगी.
रिपोर्टर: आपने टेलीफोन पर बताया था कि आप लोगों ने हमारे चैनल पर दिखाने की लिए कुछ मसाला तैयार कर रखा है, उसके बारे में भी कुछ रोशनी डालें.
अब्दुल्ला: हाँ हम लोगों ने अपनी प्राइवेट कैमरा टीम से कुछ ऐसे मनगढंत वीडियो बनबाये हैं, जिन्हे दिखाकर देश की सेना और सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सकता है. यह वीडियो इस पेन ड्राइव में उपलब्ध हैं. यह मनगढंत वीडियो हमने राष्ट्रीय दानवाधिकार संगठन को भी उपलब्ध करा दिए हैं, ताकि वे लोग भी अपने लेवल पर सेना पर सवाल खड़े करके सरकार को घेरने में हमारी और हमारे आकाओं की मदद कर सकें.
रिपोर्टर (अब्दुल्ला की हाथ से पेन ड्राइव लेते हुए): आप दोनों पर यह आरोप भी लग रहा है कि आपकी देशभक्ति का स्तर इतना अधिक बढ़ गया है कि आप खाते तो हिन्दुस्तान का हैं लेकिन गाते पाकिस्तान का हैं.
अब्दुल्ला: देखिये हम  हिंदुस्तान की सरकार से मिला एक भी रुपया अपने ऊपर खर्च नहीं करते हैं. उस सारे रुपये को हम कश्मीरी जनता की भलाई में खर्च कर देते हैं. अब आप ही बताइये कि भला मुफ्त में तो कोई सेना के जवानों की ऊपर पत्थर फेंकने से रहा. लिहाज़ा  उस खर्चे का भी हमें ही ख्याल रखना होता है. हमारे पास हमारे आकाओं का दिया ही बहुत कुछ है, उसमे हम लोग बहुत शाही ढंग से अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं.
रिपोर्टर: अब्दुल्ला जी, आखिर में हमारे दर्शकों के लिए आप यह बताइये कि कश्मीर समस्या का समाधान कब और कैसे हो सकता है?
अब्दुल्ला: रिपोर्टर महोदय, हम दोनों पूरी विनम्रता और जिम्मेदारी के साथ यह कहना चाहते हैं और सरकार को यह बता देना चाहते हैं कि हम लोगों के जिन्दा रहते इस समस्या का कोई भी समाधान निकलना मुमकिन नहीं है.
रिपोर्टर: यह आपकी चेतावनी है?
अब्दुल्ला: नहीं, इसे हमारा विनम्र निवेदन ही समझा जाये.
(इस व्यंग्य रचना में वर्णित सभी पात्र एवं घटनाएं पूरी तरह से काल्पनिक हैं और उनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति या संगठन से कोई लेना देना नहीं है)

Monday, April 10, 2017

मोदी,भाजपा और एल. जी. की साज़िश का शिकार क्रेज़ीवाल

भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करके व्यवस्था परिवर्तन करने जैसी "क्रांतिकारी" बातें करने वाले क्रेज़ीवाल जी हमेशा से ही सुर्ख़ियों में रहने के आदी हो चुके हैं. अक्सर उनके ऊपर "ईमानदार" होने के आरोप भी लगते रहते हैं. इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, यह जानने के लिए जब मैंने क्रेज़ीवाल जी से इंटरव्यू के लिए समय माँगा तो उन्हें तो मानो मुंह माँगी मुराद मिल गयी और उन्होंने खुशी खुशी उसके लिए हामी भरते हुए कहा-"देखिये पत्रकार महोदय, मैं आपके बताये गए समय पर आपके चैनल के स्टूडियो खुद ही पहुँच जाऊँगा."

अपने वादे के मुताबिक़ क्रेज़ीवाल जी ठीक समय से लगभग दस मिनट पहले ही हमारे टी वी चैनल के स्टूडियो में तशरीफ़ ले आये और बोले-" देखिये नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं. मेरा बढ़िया सा मेक अप कर दें, ताकि मैं शक्ल से भी वही लगूँ जो मैं हूँ और दर्शक मेरे बारे में कोई गलतफहमी अपने मन में न पाल लें."

क्रेज़ीवाल के चेहरे की मन माफिक झाड़ पोंछ करते -करते हमारे चैनल के प्राइम टाइम शो का वक्त भी हो गया था, जिसका नाम था-" क्रैज़ीवाल पर लगने वाला यह आरोप बेबुनियाद है."

मैंने क्रेज़ीवाल से अपना पहला सवाल दागा-" क्रेज़ीवाल जी, आप पर शुरू से ही "भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले एक ईमानदार नेता होने के आरोप लगते रहे हैं. इन आरोपों में कितनी सच्चाई है, यही हमारे दर्शक आज जानना  चाहते है."

क्रेज़ीवाल (भड़कते हुए) : देखिये मैं यह साफ़ साफ़ बता देना चाहता हूँ कि  इस तरह के सभी आरोप सरासर बेबुनियाद हैं और हमारे विरोधियों की साज़िश हैं. अब तो बबलू कमेटी की रिपोर्ट ने भी यह साफ़ साफ़ कह दिया है कि हम लोग पूरी तरह से बेईमान, भ्रष्ट  और घोटालेबाज़ हैं. लिहाज़ा ईमानदार होने का कोई भी आरोप हमारे ऊपर बिलकुल भी नहीं लगाया जा सकता है."

मैंने फिर अपना दूसरा सवाल किया-" देखिये बबलू कमेटी की रिपोर्ट का अभी हमारे चैनल ने ठीक से अध्ययन और विश्लेषण  नहीं किया है, लेकिन आपको तो मालूम ही होगा कि इस रिपोर्ट में आपकी तारीफ कितनी बेबाकी से की गयी है, उसके बारे में कुछ हमारे दर्शकों को भी बताएं."

 क्रैज़ीवाल (खुश होते हुए): मैं बड़ी विनम्रता और जिम्मेदारी  के साथ यह कहना चाहता हूँ कि बबलू कमेटी ने हमारे ऊपर लगाए जाने वाले "ईमानदारी" के सभी आरोपों से बरी करते हुए हम पर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सरकारी संपत्ति को हड़पने के अनुकरणीय रास्ते पर चलने के लिए हमारी जमकर तारीफ की है. ऐसी तारीफ बिरलों को ही नसीब होती है. जितनी तारीफ बबलू कमेटी की रिपोर्ट में हमारी और हमारी पार्टी के नेताओं की हुयी है, हम लोगों ने गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में भी इस कमेटी की रिपोर्ट को भिजवा दिया है ताकि वे लोग भी इस रिपोर्ट का संज्ञान लेकर हमारी तारीफों के ऐसे पुल बांधें कि जनता एक बार फिर से हमारे झांसे में आ जाए और हमारी पार्टी को अपना वोट दे बैठे.”

क्रेज़ीवाल जी, लाइव टी वी पर जिस तरह से अपनी पोल खुद ही खोल रहे थे, उसे देखकर मैं एकदम स्तब्ध रह गया और उनसे बोला-" क्रैज़ीवाल जी, यह आप क्या बोल गए- आप शायद भूल गए हैं कि यह कार्यक्रम लाइव है और इसमें किसी  "क्रांतिकारी एडिटिंग" की गुंजायश नहीं है."

क्रेज़ीवाल(गुस्से से आग बबूला होते हुए) :" यह सब मोदी, भाजपा और  एल. जी.  की साज़िश है. हम अब इस साज़िश के खिलाफ जनता के बीच जाएंगे."

( इस काल्पनिक व्यंग्य रचना में वर्णित सभी पात्र एवं  घटनाएं पूरी तरह से काल्पनिक हैं और उनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति या संगठन से कोई लेना देना नहीं है)







Tuesday, April 4, 2017

केजरीवाल और जेठमलानी पर उठते सवाल

देश के नामी वकील राम जेठमलानी केजरीवाल की तरफदारी करते हुए उनका मानहानि का मुकदमा लड़ रहे हैं. यह बात पूरा देश जानता है कि केजरीवाल अपनी घटिया दर्जे की ओछी राजनीति को चमकाने के लिए सभी ईमानदार लोगों को बेईमान बता बताकर उन पर बेबुनियाद आरोप लगाते रहते हैं और जब वह व्यक्ति उन पर मानहानि का दावा ठोंकते हुए अदालत का दरवाज़ा खटखटाता है तो केजरीवाल अपनी जान बचाने के लिए जेठमलानी जैसे वकीलों की शरण में पहुँच जाते हैं. यहां तक तो बात सही है कि हर व्यक्ति को अदालत में अपना मुकदमा लड़ने के लिए वकील नियुक्त करने का पूरा अधिकार है लेकिन जब अदालत में मुकदमा केजरीवाल पर चल रहा हो और उसके वकील की भारी भरकम फीस का बिल दिल्ली सरकार से भरने के लिए कहा जाए तो सवालों का खड़ा होना लाज़मी है और उन सवालों के जबाब देने की जिम्मेदारी सिर्फ केजरीवाल की ही नहीं, उनके वकील जेठमलानी की भी बनती है.

अब समय आ गया है कि केजरीवाल और जेठमलानी दोनों मिलकर देश की जनता द्वारा पूछे जा रहे इन सवालों का जबाब दें . सवाल इस तरह से हैं :

१.      जेटली मानहानि मामले में केजरीवाल का अदालतों में बचाव करने के लिए जेठमलानी ने उन्हें ३.२४ करोड़ रुपये का बिल भेजा है. केजरीवाल ने यह वकील की फीस का बिल भुगतान करने के लिए दिल्ली सरकार को भेज दिया है और मामला अभी दिल्ली के उप राज्यपाल के पास लंबित है. सवाल यह है कि जेटली ने तो तो मानहानि का मामला दिल्ली सरकार पर नहीं, केजरीवाल के खिलाफ दर्ज किया था. फिर उस मुक़दमे को लड़ने के लिए वकील की फीस का भुगतान केजरीवाल को अपनी जेब से करना चाहिए या फिर दिल्ली सरकार को उसका भुगतान दिल्ली  की जनता के खून पसीने की कमाई में से कर देना चाहिए ?

२.       जेठमलानी जी देश के नामी वकील हैं. क्या उन्हें यह बात केजरीवाल को नहीं बतानी चाहिए कि अपने व्यक्तिगत खर्चों का भुगतान दिल्ली सरकार से करवाना सीधा सीधा भ्रष्टाचार है ?

३.       मामले ने जब मीडिया में तूल पकड़ ली तो जेठमलानी ने केजरीवाल के बचाव में आते हुए यह बयान भी दिया है कि अगर केजरीवाल बिल का भुगतान नहीं कर सके तो वह उनका मुकदमा मुफ्त में लड़ेंगे . किसी भी मुकदमा लड़ने से पहले ही वकील अपने क्लाइंट के साथ फीस की बात साफ़ साफ़ तय कर लेता है. क्या जेठमलानी  ने केजरीवाल से फीस की बात पहले से तय नहीं की थी ?

४.       क्या केजरीवाल ने अपने व्यक्तिगत मुक़दमे की फीस का बिल दिल्ली सरकार को भुगतान करने के लिए जेठमलानी की सलाह पर ही भेजा है ?

५.      दिल्ली सरकार के खजाने से अपने व्यक्तिगत खर्चों के भुगतान का यह पहला मामला है या फिर इस तरह से दिल्ली के जनता के खून पसीने की कमाई  की लूट पहले भी होती रही है और पहली बार यह मामला उप राज्यपाल के संज्ञान में आया है ?

केंद्र सरकार को तुरंत इस संगीन मामले का संज्ञान लेते हुए इस सारे घोटाले की उच्च स्तरीय जांच करानी चाहिए ताकि दिल्ली की जनता से टैक्स के रूप में वसूले गए धन के  इस तरह से दुरूपयोग की निष्पक्ष जांच हो सके और दोषियों को कड़ा दंड दिया जा सके


Thursday, March 30, 2017

कैसी कैसी चाल- चले केजरीवाल !!!

"जिस राज्य की प्रजा लोभी और लालची होती है, वहां ठग शासन करते हैं.” चाणक्य ने जब यह बात अपनी चाणक्य नीति में लिखी थी, उस समय शायद उन्हें भी नहीं मालूम था कि कभी दिल्ली जैसे राज्य में उनकी लिखी गयी नीति को पूरी सच्चाई के साथ अमल में लाया जाएगा. जब से दिल्ली में केजरीवाल की सरकार बनी है, लोग अपने मुफ्त के वाई-फाई, मुफ्त के पानी और सस्ती बिजली के लालच में अपना वोट एक ऐसी पार्टी को देने पर लगातार अपना सर पीट रहे हैं, जिसे न सरकार चलाना आता है और न ही सरकार चलाने कि कोई मंशा नज़र आती है. नतीजतन दिल्ली में पिछले लगभग दो ढाई सालों से जो कुछ भी हो रहा है, वह सब भगवान् भरोसे चल रहा है. अगर कुछ अच्छा हो जाए तो दिल्ली सरकार उसका श्रेय अपनी सरकार को दे देती है और जो कुछ भी ख़राब हो जाए या न हो पाए, उसके लिए वह सीधे सीधे मोदी सरकार को जिम्मेदार बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती है.
दिल्ली में विधान सभा चुनावों से पहले केजरीवाल ने जनता से यह वादा किया था कि दिल्ली कि बिजली कंपनियां गड़बड़ कर रही हैं और उनका सी ऐ जी ऑडिट कराया जाएगा और उस ऑडिट के बाद से दिल्ली में बिजली अपने आप ही सस्ती हो जाएगी. जिस समय केजरीवाल ने यह वादा किया था, उस समय भी उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि दिल्ली की बिजली कम्पनियाँ प्राइवेट कम्पनियाँ हैं और उनका सी ऐ जी ऑडिट कानूनन संभव नहीं है. बाद में क्या हुआ, यह सभी को मालूम है – सी ऐ जी ऑडिट के खिलाफ प्राइवेट बिजली कम्पनियाँ अदालत चली गयीं और अदालत ने कानून का पालन करते हुए सी ऐ जी ऑडिट पर रोक लगा दी. केजरीवाल सरकार ने शर्मा शर्मी अपनी इस हार पर पर्दा डालने के लिए “सब्सिडी” के रास्ते से बिजली के बिलों में कुछ राहत देने की नौटंकी को अंजाम दिया . यह सभी जानते हैं कि “सब्सिडी” का मतलब यह होता है कि आप की एक जेब से पैसा निकालकर उसी पैसे को आपकी दूसरी जेब में डाल दिया जाए.
पिछले दो ढाई साल के शासन काल में केजरीवाल की सरकार और इसके नेता इतने विवादों में पकडे जा चुके हैं, जिनकी गिनती भी करना अपने आप में एक बड़ा काम है. अभी हाल ही में दिल्ली के उप राज्यपाल ने केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से विज्ञापन घोटाले में ९७ करोड़ रुपये वसूलने का आदेश दिल्ली के मुख्य सचिव को दिया है. बाकी के कारनामे रोजाना अख़बारों की सुर्खियां बनते ही रहते हैं.
केजरीवाल के इन्ही कारनामों के चलते हालिया विधान सभा चुनावों में गोवा में इन्हें ४० में से ३९ सीटों पर अपनी जमानत जब्त करानी पडी और पंजाब में भी लगभग २ दर्जन सीटों पर इनके नेताओं कि जमानत जब्त कर ली गयी. लेकिन इन सब बातों से कोई भी सबक न लेते हुए केजरीवाल ने दिल्ली नगर निगम चुनावों से ठीक पहले जनता को एक बार फिर से अपनी चाल में फंसाने की नाकाम कोशिश की है. इस बार जनता को यह लालच दिया जा रहा है कि अगर यह नगर निगम चुनावों में जीत गए तो दिल्ली में हाउस टैक्स को पूरी तरह ख़त्म कर देंगे. दिल्ली नगर निगम कानून, १९५७ के अन्तर्गत हाउस टैक्स को केवल कानून में संशोधन लाकर ही ख़त्म किया जा सकता है और कानून में संसोधन सिर्फ संसद की सहमति से ही किया जा सकता है. इनकी पार्टी के शिक्षा मंत्री इस बात को बार बार कह रहे हैं कि नहीं हम तो कानून में संसोधन के बिना ही हाउस टैक्स ख़त्म कर देंगे. लेकिन यह सबको मालूम है कि जब संसद में इस तरह का कोई संसोधन मंजूर नहीं होगा तो केजरीवाल मोदी सरकार पर यह आरोप लगाकर एक तरफ हो जाएंगे कि, “उनकी सरकार तो हाउस टैक्स ख़त्म करना चाहती है, वह तो मोदी जी उन्हें हाउस टैक्स ख़त्म नहीं करने दे रहे”.
यहां जो समझने वाली बात है वह यह है कि किसी भी नगर निगम को सुचारू रूप से चलाने के लिए पैसों की जरूरत होती है और हाउस टैक्स से होने वाली आय ही किसी भी नगर निगम के लिए सबसे अधिक राजस्व इकठ्ठा करती है. अब केजरीवाल जी नगर निगम को होने वाली आय के मुख्य स्रोत को ही बंद करना चाहते हैं- वह भी यह बताये बिना कि अगर यह आय नगर निगम को नहीं होगी तो नगर निगम चलेगा कैसे ? अभी जब हाउस टैक्स की वसूली जनता से की जा रही है, उसके बाबजूद नगर निगम राजस्व की कमी से इस हद तक जूझ रहे है कि दिल्ली में सफाई कर्मचारी कई बार सिर्फ इसी लिए हड़ताल पर जा चुके है कि उन्हें उनका वेतन नहीं मिल पा रहा था. अब जरा कल्पना कीजिये कि अगर हाउस टैक्स से होने वाली आय को भी बंद कर दिया गया तो क्या नगर निगम सुचारू रूप से चल पायेगा?
अपने चुनावी फायदे के लिए जनता को बार बार बेबकूफ बनाने में माहिर केजरीवाल इस बार कामयाब होंगे या नहीं, यह तो चुनाव नतीजों के आने की बाद ही मालूम होगा.

Thursday, March 23, 2017

मृत्युशैया पर आखिरी साँसें गिनता "सेकुलरिज्म" !!!

हाल ही मेंराज्यों के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के अभूतपूर्व प्रदर्शन से सभी चुनावी विश्लेषक और मीडिया में बैठे "वरिष्ठ पत्रकार" स्तब्ध  हैं. सभी तरह के पूर्वानुमानों को धता बताते हुए भाजपा नेमें सेराज्यों में  विजय तो प्राप्त की ही है, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में प्रचंड बहुमत से ४०३ में से ३२५ सीटें जीतकर सभी को सकते में दाल दिया है. उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से सबसे बड़ा धक्का उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ( छद्म धर्मनिरपेक्ष) ताकतों को लगा है, जो आज तक देश की जनता को जाति-पाति और धर्म-संप्रदाय के नाम पर बांटकर देखा करते थे. इन लोगों का चुनावी आकलन कभी भी "मुस्लिम-दलित" या फिर "अल्पसंख्यक-पिछड़ा वर्ग" के गठजोड़ के आगे  नहीं बढ़ सका.

इसघोर साम्प्रदायिकता और जाति-पाति की राजनीति” को गैर-भाजपाई राजनीतिक दल , मीडिया में बैठे उनके चाटुकार और कुछ स्व-घोषित बुद्धिजीवी लोग "धर्मनिरपेक्षिता" या "सेक्युलरिज्म" का नाम देते रहे. देश की जनता इन लोगों के षड्यंत्र से अनजान थी और जाति -पाति के जहर से युक्त  इसघोर साम्प्रदायिकता” को ही "सेक्युलरिज्म" समझती रही और पिछले ६०-७० सालों से इन गैर भाजपाई राजनीतिक दलों की "सेक्युलर" सरकारें इसी तरह बनती रहीं और लोगों को छलती रहीं. छद्म धर्मनिरपेक्षिता के चलते यह लोग बिहार में भी सत्ता हथियाने में कामयाब हो गए - बिहार के लोग जब तक अपनीभयंकर गलती” को समझ पाते, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और वे लोग बिहार में "जंगल राज " की वापसी के लिए खुद अपने आप को जिम्मेदार ठहराने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते थे. लेकिन देश के अन्य भागों में बैठे हुए लोगों ने और खासकर उत्तर प्रदेश की जनता ने बिहार की जनता की भयंकर गलती से सबक लेते हुए उस गलती को दुबारा नहीं दोहराया.

आगे बढ़ने से पहले आइए आपको यह बताएं कि यह "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" आखिर होती क्या है ? कायदे से देखा जाए तो धर्मनिरपेक्षिता का सीधा सादा मतलब उस व्यवस्था से है जिसमे बिना किसी भेदभाव के सभी जाति और धर्म-संप्रदाय के लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाए. दुर्भाग्य से देश आजाद होने के बाद से ही उस समय के राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत करने के लिए, चुपचाप इस "धर्मनिरपेक्षिता" का स्वरुप बिगाड़कर उसे "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" का रूप दे दिया और उसी के सहारे लगभग ६०-७० सालों तक अपनी सरकारें चलाते रहे. देश में भारतीय जनता पार्टी एकमात्र राजनीतिक दल है जिसने शुरू से ही अपनी धर्मनिरपेक्षिता की नीति सिर्फ बनाई हुयी है, बल्कि उस पर मुस्तैदी से अमल भी कर रहा है.पी एम् मोदी ने "सबका साथ-सबका विकास" का जो नारा दिया है, उससे भी भाजपा की इसी नीति की पुष्टि होती है.

क्योंकि देश में सिर्फ भाजपा ही एकमात्र "धर्मनिरपेक्ष" राजनीतिक पार्टी थी, इसलिए उसके बारे में ६०-७० सालों से लगातार यह दुष्प्रचार किया जाता रहा कि भाजपा तो -"सांप्रदायिक" पार्टी है और जिस "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" को बाकी के राजनीतिक दल अपनाये हुए हैं, वही असली मायनों में "धर्मनिरपेक्षिता" है. इस दुष्प्रचार में मीडिया और बुद्धिजीवी लोग सभी जोर शोर से लगे हुए थे और अभी भी लगे हुए है. वह तो भला हो सोशल मीडिया और उसके बदौलत बढ़ती हुयी जागरूकता का, जिसके चलते देश की जनता "सेक्युलरिज्म" के खूबसूरत डिब्बे में पैक की गयी इस "घोर साम्प्रदायिकता" को २०१७ के चुनावों से पहले समझने में कामयाब हुयी और उसने धर्मनिरपेक्षिता का ढोंग करने वालों को इन चुनावों में पूरी तरह नकार दिया.

उत्तर प्रदेश में  मायावती, अखिलेश और राहुल गाँधी जिस तरह से  "मुस्लिम-दलित" समीकरण के सहारे सत्ता हथियाने के सपने देख रहे थे, राज्य की जनता ने इन लोगों को निर्णायक ढंग से लताड़ कर भगा दिया है. जनता ने यह बता दिया है कि इस देश में सिर्फ मुस्लिम-दलित ही नहीं, अन्य वर्गों और जाति-सम्प्रदाय के लोग भी रहते हैं और उन सभी के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए. इस सन्दर्भ में पूर्व प्रधान मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मनमोहन सिंह के उस बयान का जिक्र करना भी जरूरी हो जाता है, जो उन्होंने ने सन २००६ में  नेशनल डेवलपमेंट कौंसिल की ५२ वीं सभा को संबोधित करते हुए दिया था. वह विवादित बयान इस प्रकार है -"अल्पसंख्यकों,खासकर मुस्लिमों का, देश के संशाधनों पर पहला हक़ है." देश की जनता खुद यह फैसला करे कि यह बयान कितना "धर्मनिरपेक्ष" है. हैरानी की बात यह है कि किसी मीडिया हाउस, अखबार, टी वी चैनल या किसी बुद्धिजीवी ने इस बयान की हल्की सी भी आलोचना नहीं की.  अब आप जरा कल्पना कीजिये कि अगर यही बयान इसी मौके पर पी एम् मोदी ने कुछ इस तरह से दिया होता कि -" बहुसंख्यकों, खासकर हिंदुओं का, देश के संशाधनों पर पहला हक़ है.", तो समूचा विपक्ष, उसका चाटुकार मीडिया और  अवार्ड लिए हुए बुद्धिजीवी सड़कों पर लोट लोट कर तब तक धरना प्रदर्शन करते रहते, जब तक कि मोदी जी से वे लोग इस्तीफ़ा नहीं ले लेते.


इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यही है कि लोग पिछले ७० सालों में सिर्फ पढ़े लिखे हैं, पहले से अधिक समझदार और जागरूक भी हुए हैं. तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों, उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया और बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर लोगों ने भरोसा करना अब बंद कर दिया है और सभी लोग खुद इस बात का विश्लेषण कर पा रहे हैं कि "सबका साथ -सबका विकास" के नारे में ही असली धर्मनिरपेक्षिता निहित है. जिस नकली धर्मनिरपेक्षिता के ढोंग के सहारे सभी गैर-भाजपाई पार्टियां पिछले ७० सालों से  जनता को लूट रही थी, उन सबकी "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" को जनता ने इन चुनावों में पूरी तरह अस्वीकार कर दिया है. अगर यह कहा जाए कि  "छद्म धर्मनिरपेक्षिता" २०१७ आते आते अपनी मृत्यु शैया पर गयी है और अंतिम साँसें गिन रही है, तो उसे अतिश्योक्ति नहीं समझना चाहिए.

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