इटली वाली बाई के खानदानी नौकर हैं हम
जब से देश मे "पुरस्कार वापसी संघ" का गठन किया गया है और इसके तत्वावधान मे जबसे कुछ स्व-घोषित लेखकों-साहित्यकारों,फ़िल्मकारों,वैज्ञानिकों और इतिहासकारों ने अपने "मेहनत" से कमाये हुये पुरस्कारों और सम्मानों को लौटने का सिलसिला शुरु किया है, देश के लोगों मे यह उत्सुकता जाग उठी है कि आखिर यह सब माज़रा क्या है और यह लोग पिछले 60 सालों मे कहाँ जाकर सोये हुये थे और इनकी नींद अब जाकर क्यों खुली है? हमारे अखबार ने इस मौके को भुनाने की गरज़ से "पुरस्कार वापसी संघ" के राष्ट्रीय अध्यक्ष से संपर्क साधा और उनसे बातचीत करने की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी गयी. अध्यक्ष महोदय से जो सवाल मैने किये और उनके जो जबाब मिले, उन्हे पाठकों की सुविधा के लिये बिना किसी काट-छांट के प्रस्तुत किया जा रहा है.
सवाल : सबसे पहले तो आप अपना परिचय देने का कष्ट करें.
जबाब : देखिये हम लोगों के कारनामे खुद हमारी करतूतों का बखान करते है और इसीके चलते हम जैसे लोग किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं.
सवाल : नही मेरा मतलब है कि आप लोग तो अपने आप को बहुत बड़ा साहित्यकार या वैज्ञानिक या फ़िल्मकार या फिर बहुत आला दर्ज़े का इतिहासकर समझते है लेकिन एक आम पाठक अगर आप के बारे मे जानना चाहे तो क्या संक्षेप मे आप अपने बारे मे कुछ कह सकते है ?
जबाब : इटली वाली बाई के खानदानी नौकर हैं हम !
सवाल : यह बात तो जग जाहिर है कि आप लोग क्या हैं. हमारे अखबार के पाठकों की रुचि यह जानने मे ज्यादा है कि आप लोगों ने आखिर ऐसी क्या सेवाएं प्रदान की कि आपको आनन फानन मे पुरस्कार और सम्मान पकड़ा दिये गये ?
जबाब : चरण वन्दना और चापलूसी के अलावा हम लोगों को अगर कोई काम आता होता तो हम वह भी करने की कोशिश करते लेकिन हम लोगों की इन्ही सेवाओं के लिये ही यह तथाकथित पुरस्कार और सम्मान पकड़ा दिये गये.
सवाल : मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि अगर देश मे किसी और को भी इस तरह के पुरस्कार या सम्मान हासिल करने की इच्छा हो तो उसे भी आपकी संस्था से संपर्क साधना चाहिये ?
जबाब : हाँ जी, बिल्कुल सही जा रहे हैं आप. कई मीडिया हाउस और उनके पत्रकार हमसे लगातार संपर्क बनाये हुये हैं और हमारे द्वारा फैलाये गये दुष्प्रचार को खूब बढ़ावा दे रहे हैं. अगर उनका दुष्प्रचार काम कर गया तो वे सब लोग भी पुरस्कार और सम्मान के अधिकारी बन जायेंगे.
सवाल : लेकिन आपके इस दुष्प्रचार का मकसद और उसके लिये चुना गया समय कुछ समझ मे नही आया...उस पर भी शायद आप कुछ रोशनी डाल पाएँ.
जबाब : मकसद मे तो हम हमेशा ही कामयाब होते आये हैं और इस बार भी हम लोगों ने अपने मालिकों के प्रति वफादारी दिखाते हुये दुष्प्रचार की नौटंकी को इस खूबी के साथ अंज़ाम दिया कि एक ऐसे प्रदेश की सत्ता हथियाने मे हम लोग कामयाब हो गये जहां हमारा दूर दूर तक कोई चान्स तक नही था.
सवाल : वैसे तो आप लोग पुरस्कार और सम्मान पाये हुये बहुमुखी प्रतिभा संपन्न लोग है फिर भी मैं यह पूछने की गुस्ताखी कर रहा हूँ कि आप इस मुश्किल काम को कैसे अंज़ाम दे पाते हैं ?
जबाब : हम लोगों को इस तरह की नौटंकी और दुष्प्रचार का पूरे 60 सालों का अनुभव है-उस अनुभव के सहारे हम लोग जनता को यह समझाने मे कामयाब हो गये कि आपका पेट "विकास" नाम की चिड़िया से नही भरने वाला है- पेट भरने के लिये आप लोगों को "चारा" ही खाना पड़ेगा-चाहे वह चारा आपने मेहनत से कमाया हो या फिर वह चोरी का हो. लिहाज़ा लोगों ने "विकास" को दुलत्ती मारते हुये "चारा चोरों" को अपने गले लगा लिया.
सवाल : पर यह तो आप लोगों ने ठीक नही किया.......क्या लोगों को 60 सालों के कुशासन और जंगल राज के बाद एक बार भी "विकास" के रास्ते पर चलने का हक नही है.
जबाब : "विकास" से तो जनता का फायदा होता है....ना हमारे मालिकों का होता है और ना हमारा. हमे यह पुरस्कार और सम्मान (जिन्हे हम आज उनकी जीत को सुनिश्चित करने के लिये लौटा रहे हैं), जनता ने नही, हमारे इन्ही मालिकों ने दिये हैं और जनता की जेब काट काटकर ही दिये है-फिर आप ही बताइये कि हमारी वफादारी किसके प्रति होनी चाहिये ?
जब मैने देखा कि पुरस्कार वापसी संघ के अध्यक्ष महोदय ने जबाब देने के बजाये मुझसे सी सवाल करने शुरु कर दिये हैं, तो मैने अपना बस्ता समेटने मे ही अपनी भलाई समझी और उन्हे धन्यवाद कहता हुआ अपनी इस मुलाकात को खत्म किया.
(इस काल्पनिक व्यंग्य रचना के सभी पात्र, चरित्र और घटनाएं पूरी तरह से काल्पनिक हैं और उनका किसी जीवित या मृत व्यक्ति या उससे जुड़े किसी वास्तविक घटनाक्रम से मेल खाना महज एक संयोग होगा.)
Published on 8/11/2015
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