न्यायपालिका बेलगाम-देख लिया अंज़ाम !
मोदी सरकार ने केन्द्र मे सत्ता संभालते ही इस बात को साफ कर दिया था कि देश मे मौजूद बहुत सारे घिसे पिटे और सड़े गले कानूनो को, जो अपनी उपयोगिता आज के संदर्भ मे पूरी तरह खो चुके हैं, उन्हे समाप्त कर दिया जायेगा ! इन सभी कानूनों की सूची मे अगर सबसे ऊपर किसी कानून का नाम होना चाहिये तो वह है-न्यायालय अवमानना अधिनियम,1971 जिसे अंग्रेज़ी मे Contempt of Court Act,1971 के नाम से भी जाना जाता है ! हमारे देश मे लेखक, पत्रकार, शिक्षक, संपादक, डॉक्टर, वकील, इंजिनियर, राजनेता,सरकारी अधिकारी आदि बहुत सारे वर्गों के लोग हैं, जिनके किये हुये कामों की आलोचना सार्वजनिक रूप से होती रहती है ! यह ठीक भी है क्योंकि यह सभी लोग कुछ भी होने से पहले इंसान हैं और गलती किसी भी इंसान से हो सकती है और जब तक सार्वजनिक रूप से उसकी आलोचना नही की जायेगी, उसमे सुधार की गुंजायश कम ही रहती है !
देश की अदालतों मे जो जज बैठे हुये है, वे लोग भी जज बाद मे हैं और पहले इंसान हैं और उनसे भी गलती हो सकती है जिसकी समय समय पर आलोचना होनी चाहिये जो एक स्वस्थ समाज के लिये बेहद जरूरी है ! दुर्भाग्य से हमारे देश मे एक ऐसा कानून बना दिया गया है जिसे न्यायालय अवमानना अधिनियम,1971 कहा जाता है और जिस कानून ने देशवासियों से "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता " के अधिकार को ही छीन लिया है और इसी के चलते मीडिया और सोशल मीडिया कहीं पर भी किसी अदालत के फैसले पर टिप्पणी करने से लोग हमेशा बचते ही नज़र आते है ! जिन लोगों ने इस कानून को बनाया होगा उन्होने शायद यह सोचा होगा कि जो लोग इन अदालतों मे जज बनाये जायेंगे, वे सब इंसान नही , बल्कि आसमान से उतरे हुये फ़रिश्ते होंगे-जिनसे कभी कोई गलती होगी ही नही और इसलिये जो उनकी गलतियों की तरफ इशारा करके आलोचना करने की हिम्मत करेगा उसे, अदालत अवमानना अधियम,1971 के अंतर्गत दंडित किया जायेगा !
जस्टिस काटजू के हालिया खुलासों पर अगर नजर डाली जाये तो हम यह पायेंगे कि अदालतों मे बैठे हुये जज आसमान से उतरे फ़रिश्ते नही है,और वे भी हमारे और आपके जैसे ही इंसान हैं और वे सभी गलतियाँ कर सकते है जो हम सब कर सकते हैं ! लिहाज़ा जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले इस तरह के कानूनों को उनकी सही जगह दिखाई जाये ताकि न्यायिक प्रक्रिया को पूरी तरह पारदर्शी बनाया जा सके और लोगों को इस बात का यकीन हो सके कि जो कुछ हिंन्दी फिल्म "जॉली एल एल बी" मे दिखाया गया है, वह सब सच नही है !
न्यायपालिका को अब तक हमारे देश मे बेहद सम्मान के साथ देखा जाता रहा है और यह संम्मान आगे आने वाले समय मे और अधिक बढना चाहिये-लेकिन यह तब तक नही हो सकता जब तक इस तरह के दकियानूसी कानून अपना अडंगा लगाये बैठे रहेंगे ! संत कबीरदास ने कहा था कि- "निंदक नियरे राखिये-आँगन कुटी छवाय ! बिन पानी-साबुन बिना,निर्मल करे सुभाय !" कबीर की यह अमृत वाणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस समय थी और न्यायपालिका को इस अमृतवाणी के प्रसाद से वंचित रखे जाने का कोई औचित्य कम से कम आज के माहौल मे तो नही है !
(जयललिता,सलमान,लालू यादव और नेशनल हेराल्ड जैसे हाई प्रोफाइल मामलों पर अदालतों के रवैये पर जिस तरह से सोशल मीडिया पर चर्चा चल रही है-उसे देखकर यही लगता है कि देश की अदालतों मे सब कुछ ठीक ठाक नही चल रहा है.यह लेख इस ब्लॉग पर पहले भी दिनांक 23/11/2014 और 12/5/2015 को प्रकाशित हो चुका है-अगर उस समय ही इसमे लिखे सुझावों पर अमल किया गया होता तो वर्तमान मे पैदा हुई इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बचा जा सकता था-केन्द्र सरकार की नींद इस मामले मे जितनी जल्दी खुले उतना ही देश और समाज के लिये अच्छा होगा.यह लेख तब तक इसी ब्लॉग पर बार बार छपता रहेगा, जब तक "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" को बाधित करने वाला यह कानून रद्दी की टोकरी मे नही डाल दिया जाता.)
Published on 14/12/2015
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