इस्लाम दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मजहब है
"इस्लाम दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मजहब है और डेढ़ अरब से ज्यादा मुसलमानों की आबादी है फिर भी हर जगह जूते खा रहे हैं. 50 से ज्यादा इस्लामी मुल्क हैं, किसी एक मे लोकतंत्र नही है, विज्ञान नही है, किसी दूसरे मजहब का संम्मान नही है. बाबर, औरंगज़ेब,गज़नवी जैसे हैवानो को अपना आदर्श मानते हैं,सदियों से एक दूसरे की गरदने उतारने मे लगे हैं और ऊपर से "हमसे बढ़कर कौन" मानसिकता का शिकार हैं. इनको अभी तक पता ही नही चला है कि इनके साथ कोई भयंकर समस्या है."
-हसन निसार
(वरिष्ठ पाकिस्तानी बुद्धिजीवी एवं पत्रकार)
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पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हसन निसार ने अपना जो दर्द अपने इस वक्तव्य मे बयान किया है, वह यह तो नही पता की उन्होने किस संदर्भ मे किया है लेकिन यह बात निश्चित है कि पिछले 68 सालों मे आज तक कोई भारतीय पत्रकार (मुस्लिम या गैर मुस्लिम) यह बात कहने का साहस नही जुटा पाया-उसका कारण सिर्फ और सिर्फ एक था कि पिछले 60 सालों मे हमने जो "सेकुलरिज्म" की परिभाषा बना रखी थी, उससे देश मे शासन करने वालों का तो मतलब सीधा हो रहा था, लेकिन मुस्लिम समुदाय की हालत दिन ब दिन बद से बदतर होती जा रही थी ! लेकिन हैरानी की बात यह है कि मुसलमानो को "सेकुलरिज्म" की यह घुट्टी हमारे राजनेता "तुष्टिकरण" की खूबसूरत पैकिंग करके पिला रहे थे और इसलिये मुस्लिम समुदाय उसको मजे लेकर पी रहा था और इन लोगों के हाथ मे एक "वोट बैंक" बनकर इन्ही को वोट देता रहा जो उसकी बदहाली के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार थे-यह सिलसिला बदस्तूर आज भी जारी है और शायद काफी समय तक आगे भी जारी रह सकता है.
अब उस सवाल पर आते हैं कि चलो नेता लोगों का तो मुसलमानों को तुष्टिकरण करके बिगाड़ने मे अपना स्वार्थ था, लेकिन हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया और उसके पत्रकार क्यों खामोश रहे ? इस बात का जबाब में खुद अपने कई लेखों मे दे चुका हूँ कि 60 सालों के दौरान जिन लोगों ने सत्ता का सुख लूटा, उन्होने मीडिया को अपने साथ मिलाकर यह काम किया था-वर्ना इस्लाम के बारे मे जितना ज्ञान एक पाकिस्तानी पत्रकार को है, वह ज्ञान क्या भारत के सारे पत्रकारों के पास मिलाकर भी नही है?
इस सारी समस्या के पीछे एक मनोविज्ञान है-वह यह कि अगर किसी के घर मे भी दो बच्चे हों, तो जिस बच्चे को ज्यादा "लाड-प्यार" से रखा जाता है, आमतौर पर वही सबसे ज्यादा निकम्मा निकलता है ! इसी "लाड़-प्यार" को राजनीतिक भाषा मे "तुष्टिकरण" कहा जा सकता है. "सेकुलरिज्म" की आड़ मे मुस्लिम समुदाय को बरगलाने का जो षड्यंत्र पिछले 60 सालों मे चलाया गया है, उसके चलते मुस्लिम समुदाय को कभी इस बात का ख्याल ही नही आया कि इन लोगों ने "तुष्टिकरण" की शराब पिलाकर इन लोगों को ऐसा मदहोश कर दिया है कि इन्हे-"वोट बैंक" समझने वाले लोग इन्हे अपने पैरों पर खड़ा ही नही होने देना चाहते.
अब 68 साल बाद ही सही, यह समय आ गया है कि मुस्लिम समुदाय अपने फायदे-नुकसान को नेताओं के ऊपर ना छोड़कर, उसका फैसला खुद करे. जो नेता किसी आतंकवादी के नाम मे आदरसूचक शब्द लगाकर उसका मान बढ़ाते हैं, उनके उस काम से मुसलमानो को क्या फायदा होता है ? कुछ नेता किसी देशद्रोही आतंकवादी को सिर्फ इसलिये बचाने के लिये इकट्ठे हो जाते हैं कि वह मुस्लिम समुदाय से है-इनकी इस बेजा हरकत से एक आम मुसलमान को भला क्या फायदा पहुंचता है ? कोई "सेक्युलर" पी एम यह कह दे कि इस देश के संसाधनो पर पहला हक मुसलमानो का है-तो क्या उसके कहने मात्र से ही मुसलमानो के ख़ज़ाने भर जाते हैं? कोई "सेक्युलर" गृह मंत्री किसी ऐसे कानून की वकालत करे, जिसमे दोष किसी का भी हो, मुजरिम हिन्दू समुदाय के व्यक्ति को ही माना जायेगा-ऐसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था अगर लागू कर भी दी जाये तो उससे मुस्लिम समुदाय को क्या फायदा होने वाला है ?
22 साल की लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद सारे कानूनी-गैरक़ानूनी दांव-पेच आज़माने के बाद देशद्रोही आतंकवादी याकूब को फांसी पर लटकाया गया-उसके जनाज़े मे लाखों मुसलमानो का शिरकत करना किस "सेक्युलर सोच" की तरफ इशारा करता है ? जो लोग याकूब से हमदर्दी दिखा रहे थे, उनके तो अपने अपने राजनीतिक हित जुड़े हुये थे, लेकिन एक आम मुसलमान के लिये एक "आतंकवादी" यकायक "हीरो" कैसे बन गया ? क्या सभी मुसलमान अपने बच्चो को "याकूब" बनाना चाहते हैं ?
इस सारे मामले मे सबसे ज्यादा दोष उन मुसलमानो का है जो पढ़े लिखे होने के बाबजूद,अपने समुदाय का हित-अहित ना खुद देख पा रहे हैं और ना ही उसके बारे मे अपने समुदाय के उन लोगों को जागरूक कर पा रहे है जो कम पढ़े लिखे है-उल्टे हाल की घटनाओ को देखे तो हम यह पायेंगे कि पढ़े लिखे मुसलमान इस "तुष्टिकरण" के नशे मे कुछ ज्यादा ही मदहोश पाये जा रहे हैं. भारत पाकिस्तान एक साथ बने थे, लेकिन भारत कहाँ पर है और पाकिस्तान कहाँ पर खड़ा है ? अगर मुस्लिम समुदाय ने अभी भी "तुष्टिकरण" के कुत्सित प्रयासों का विरोध नही किया(अभी तक तो इन कुत्सित प्रयासों का स्वागत किया जा रहा है), तो उन्हे आगे शायद संभलने का मौका भी ना मिले.भारत मे अगर मुस्लिम समुदाय इसी "तुष्टिकरण" की शराब के नशे मे और ज्यादा दिनो तक मदहोश रहा तो अपनी दुर्दशा के लिये वह खुद जिम्मेदार होगा.
हसन निसार के इस बयान से दुनिया के मुसलमान कुछ सबक लेंगे, इस बात की संभावना हालांकि शून्य के बराबर है-देखने वाली बात यह रहेगी कि भारत के मुसलमान इस बात का कोई संज्ञान लेंगे या नही.
Published on 10/8/2015
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